लाल जोड़े में दमक पीताम्बरी,
राणा जी की विषैली जलन धुली...
सुनहरी जो मीरा स्याह कान्हा में घुली।
श्याम से रंग की आस लिये पिये विष प्याले,
भला कलियुग, भले इसके बंदे,
जोगन को दुनियादारी सिखाने चले।
सावन वो पावन कर गयी,
जिसको डुबाती नदिया दो धारा हुयी,
सजदे में अकबर की नज़रे झुक गयी,
सुनहरी जो मीरा स्याह कान्हा में घुली।
जाने कैसा मोह, जाने कौन सहारा,
एक उसकी वीणा, दूजा जग सारा।
तानो की अगन यूँ सही,
काँटो की सेज पर सोयी,
रूखी सी ऋतुओं में निश्चल वो रही,
सुनहरी जो मीरा स्याह कान्हा में घुली।
अब तक बस शहजादों - परवानो के किस्सों को लकीर माना,
फिर एक नयी दीवानी को जाना,
उसने मन की मूरत को चुना,
दुनिया जिसे भ्रम कहती रही,
उस वहम से सच्चा इश्क़ बुना।
सहस्त्रों में बाँट तुम संयत रही,
फिर प्रेम मोल दो पटरानी जी,
उस जोगन को भी अपना श्याम दो रुकमणी,
सुनहरी जो मीरा कान्हा में घुली।
- मोहित शर्मा (ज़हन)
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*) - Hindi-Urdu Experiment.
*) - Mirabai was a great saint and devotee of Sri Krishna. Despite facing criticism and hostility from her own family, she lived an exemplary saintly life and composed many devotional bhajans. Historical information about the life of Mirabai is a matter of some scholarly debate. The oldest biographical account was Priyadas’s commentary in Nabhadas’ Sri Bhaktammal in 1712. Nevertheless there are many aural histories, which give an insight into this unique poet and Saint of India. More: http://www.poetseers.org/the-poetseers/mirabai/index.html
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