जैसा अपने बड़ो से सुना और जितना समझा उसमे एक बात गौर की, पहले संसाधनो-सुविधाओं की कमी थी पर जनता में धैर्य और दूसरो के लिए आदर था। एक बुज़ुर्ग गाइड ने बताया कि पहले विदेशी पर्यटकों के लिए आम जन में सम्मान, आत्मीयता का भाव रहता था। बाहरी लोगो को अपनी संस्कृति दिखाने की ललक रहती थी। इसलिए हर टूरिस्ट मैन्युअल, डाक्यूमेंट्री आदि में यह ज़रूर बताया जाता था कि भारत का अनुभव लिए बिना घूमने का तो दूर ज़िन्दगी का अनुभव अधूरा है। विदेशी लोगो के कोतूहल का विषय यह भी रहता था कि किस तरह सादे जीवन में अधिकतर भारतीय इतनी सारी खुशियाँ ढूँढ लेतें है?
आज के दौर की बात करें तो उन्होंने बताया कि जनसँख्या के मुद्दे के अलावा लोगो में वो आदर, आत्मीयता के भाव कहीं लुप्त हो गए है। सबको अपनी काबिलियत, हुनर से ज़्यादा पैसा चाहिए और विदेशी उनके लिए इंसान ना होकर चलते-फिरते नोटों की गड्डी बन गए है, लालच में अंधे हम सब, अपने देश से उनका यहाँ आने का आनंद, मुसीबत और सरदर्द में बदल देते है। ऐसा नहीं है की पहले ये सब नहीं होता था पर तब यह संख्या नज़रअंदाज़ करने लायक काफी कम होती थी। शायद इसी वजह से चुन्नू-मुन्नू द्वीप समूहों वाले देशो तक में भारत से ज़्यादा पर्यटक आते है। ऊपर से हमारे द्वारा अपनी संस्कृति का पूर्ण परित्याग कर देने से उन्हें यहाँ का जनमानस उनकी संस्कृति का दोयम दर्जे का घटिया प्रतिबिंब लगता है। अब आप यह कहें की समय के साथ बदलना चाहिए तो मैं सहमत हूँ पर यह बताइये क्यों कई हर मायने में विकसित देश अपनी भाषा, संस्कृति को महत्व देते है और फिर भी समय-समय पर नयी तकनीक, तरीके अपना लेते है? दोनों बातें साथ भी चल सकती है, मॉडर्न बनने की होड़ में अपनी पहचान की बलि क्यों देना, उसे हेय दृष्टि से क्यों देखना? सुधार की कोशिश के बजाये सिर्फ कोसते ही क्यों रह जाना?
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