'रवाशोल का नाम सुना है?'
'नहीं!'
'शक्ल तो है ही, अकल भी तेरी बंगाली ही है...उसने एक जनरल और काउंसिलर के घर में बम विस्फोट किये थे!'
'आतंकवादी था?'
'फ्रांस का था, जैसे तू कलकत्ते का है. अनार्किस्ट था....'
'पेंट ख़तम हो गया!'
'लाल वाले से लिख. ८ साल का था जब उसने इस रास्ते पर चलना शुरू किया, ३२ तक पहुँचते ही इसी रास्ते पर उसे दफना दिया और ऊपर से मोनार्की की चादर चढ़ा दी!'
'इंजन शुरू करूँ?'
'पहले ये जो हाथों पर पेंट की मेहँदी लगायी है, उसे तो देखने दे. पांच डिब्बे लग गए पूरी दीवार भरने में...इसे पढ़ तो सही....'
'इंटों के जंगल जब जलें पानी की राह पलट जाए,
अब जा के आँखें खुलीं जब लहू से मुख को धोये!'
'ले, आ गए दोनों. पीछे बैठ...खाली थी?'
'एक हवलदार था, हाकी से मार कर बाहर लिटा दिया था!'
'पंखे में लटका आना था, वर्दी से झल्लों पर पड़ी धूल ही हटती...भगा इसे!'
भोर के अँधेरे में मोटरसायकलें शोर मचाती हुयी गुम हो गयीं. और पीछे उजाला देती आग की लपटें अपनी पकड़ पुलिस चौकी पर मज़बूत कर रही थीं.
पृथ्वी - इस गाँव की आबादी कितनी है? १८००. और इस देश की? रूस से भी जायदा पेड़ उगा रखे हैं यहाँ. ये पेड़ हवा नहीं देते, आदमी की बची - खुची हवा भी बाहर खींच लेते हैं. क्या दिया है इस देश ने तुम्हे?...डेमोक्रेसी से भरा प्रपंच...१ पार्टी बनायो, नोटों से उसका प्रचार करो, और फिर ५ साल तक उस कुर्सी पर जोंक की तरह बैठे रहो. प्रगृति का इतना बुरा हाल है की किसानों को खुद्खुशियाँ करनी पड़ रही हैं..विकास की राह में रोड़ा डाला पड़ा है इस डेमोक्रेसी ने. और, डेमोक्रेसी कहाँ है? जनता के पास? जनता की डोर तो सरकार के पास है..कठपुतलियों की तरह नचाते हैं इस डोर से. २८ स्टेट और ७ यूनियन टेरिटोरी बना रखी हैं. कल को ७ और जुड़ जायेंगीं, और उन राज्यों का थोड़ा प्रोमोशन करेंगे फिर उस में सारा कारागार बंद. किसी भी स्टेट को उठने नहीं देते ये लोग...उसे, तब तक रगड़ते रहो जब तक वो कश्मीर जितनी सुकड़ नहीं जाती. क्या लगता है 'खालिस्तान' क्यूँ बनाया जाना था?... इस सरकार की वजह से, इस सिस्टम की वजह से और इस पूरे देश की वजह से. मकारी की नींव पर खड़ा है ये सारा देश. क्या हम इस गाँव को भी दान कर देंगे? इस गाँव के साथ जुड़े हुए १५ कस्बों की भी क़ुरबानी दे देंगे? अब बस...सहने की भी एक हद होती है, अब तो बर्दाश्त की सारी हदें पार हो चुकी हैं...क्रांति की ये लपट इस गाँव से उठ कर पूरे देश को अपने आगोश में ले लेगी. और उसे हम शुरू करेंगे. उसे वो कंपनी शुरू करेगी जो गंदगी के जाल में फँस - फँस कर तंग आ चुकी है. ये लहर रुकनी नहीं चाहिए!
पंडाल में उपस्थित लोगों के मुखों पर मौत का सा सन्नाटा छा गया. दो पल की ये ख़ामोशी आक्रोश से भरे ललकारों में तब्दील हो गयी.
संजय - संजीव, वो आ गए!
संजय और संजीव के नन्हे कदम पथरीली राह पर सरपट दौड़ते उन मोटरसायकलों का पीछा करने लगे जिन पर सवार युवकों के चेहरे ख़ुशी से चमक रहे थे.
आदिल - लो संजय, संजीव तुम दोनों के लिए शहर से कंचे लाया हुआ हूँ.
अधिकांश - अब गिल्ली छोड़ कर इस से लोगों की आँखें फोड़ना!
विनीत - जिसकी पहले से ही फूटी हुयी है, वो भी आ गया.
आज़ाद - पृथ्वी बुला रहे हैं तुम दोनों को.
अधिकांश और आदिल, पृथ्वी के घर की तरफ चले गए.
शुकला - आज़ादी मिल गयी तुझे?
आज़ाद - अभी तो इस गाँव को नहीं मिली...तो मुझे क्या तू लाठी पर लटका के देगा?
विनीत - नील आ रहा है!
शुकला - क्या हाल है?...कुछ नया लिखा?
नील - सुनो! गुजरात के किनारे हग रहा था जब नरमदा फट गयी. डेम की दीवार से मैं लटका, नीचे मेरी चड्डी उधड़ गयी.
विनीत, शुकला, और आज़ाद के ठहाके गूंज उठे. क्रूरता की मुस्कान तो पृथ्वी के चेहरे पर भी टिकी हुयी थी.
पृथ्वी - अन्दर कौन गया था?
आदिल - जी, वो दोनों!
पृथ्वी - आग किसने लगायी थी?
अधिकांश - विनीत और शुकला ने ही लगायी थी!
पृथ्वी - और तुम दोनों वहां पे मुजरा देख रहे थे. ये घड़ी देख रहे हो..
दीवार पर टंगी घड़ी के ऊपर धूल के टिले और जालों के पहाड़ बने हुए थे, फिर भी किसी तरह घड़ी की सुई हिल रही थी.
पृथ्वी - मेरे दादा की थी. अपनी बीवी से भी ज़यादा प्यार करता था इस से. और अब, वक़्त की धूल से पुती हुयी वहीँ टंगी पड़ी है. पर अब वक़्त की सुई बदलने का समय आ गया है. ये 'अन.र.की को' जो हमारे लिए कर रही है ना, उस से ये वक़्त गुज़र जाएगा. हमे मौका मिलेगा नया वक़्त खरीदने का....अधिकांश, कल तू इसे ले कर उनके दफ्तर जाएगा. वो जो बताएं उसे दिमाग में बिठा लेना. शाम तक लौट आना. रात को समारोह होना है!
अन.र.की. को, का दफ्तर देहातियों से भरा पड़ा था.
'प्रताप केंट से आये हो?'
आदिल - जी.
'लाइन लम्बी है. आधा घंटा रुको!'
अधिकांश - पृथ्वी भ्राता ने भेजा है.
'नुकुल इन्हें अन्दर ले कर जा!'
आदिल - क्या हम आज़ादी की आड़ में सेपरेटिस्ट मूवमेंट नहीं बना रहे?
अधिकांश - अगर, पांडव और कौरव साथ - साथ चिपके रहते न तो महाभारत होती ही नहीं. तुझे क्या लगता है पृथ्वी इस कंपनी का पार्टनर बनने के लिए उन्हें फंड कर रहा है. वो, ये पैसे हमारे गाँव और आस - पास के जो इलाके बना रखे हैं न, उन पर खर्च करने के लिए इधर दे रहा है. अकेले रहेगा तो टैक्स देते हुए रगड़ा जाएगा, और ये सरकारी भांड अपनी कमीज़ बदल लेंगे पर टैक्स नहीं हटायेंगे.
आदिल - पर, ये सब हम शांति से भी तो कर सकते हैं.
अधिकांश - साले, तू चश्मा क्यूँ नहीं खरीद लेता! एक धोती भी ले ले, और फिर गले में चरखा बांध के फैला शांति यहाँ. जो, कोई भूख - नंगा दिखे उसके लिए वही पर सूत की दुकान खोल देना. तेरे कॉलेज में काफी मिल जायेंगे, अहिंसक. उन से जा के सीख ले....अब चुप रह.
आदिल कुछ बोल पाता उस से पहले ही रिशिध सिंह केबिन के अन्दर आ गया.
आदिल - नमस्ते.
रिशिध - बैठे रह...पैसे ले आये हो?
अधिकांश - गिन लेना.
पैसों का बंडल टेबल पर गिरते ही रिशिध के हाथों में चला गया.
रिशिध - पृथ्वी से कहो की महिला प्रचार जायदा जोर पकड़ रहा है. अगले हफ्ते जिस जगह पर किसानों ने बैठना था, उस जगह पर वो अपना कैंप खोलना चाहती हैं.
अधिकांश - उन्हें हटाना तो आपका काम है.
रिशिध - झंडे हर कोई उठा सकता है, बस उन में रंग का फर्क होता है. लड़ाई हमारी, शस्त्र तुम्हारे, और विजय तो शस्त्रों से ही होती है.
अधिकांश और आदिल मोटरसाइकिल पर सवार गाँव के काफी नज़दीक पहुँच चुके थे.
आदिल - इस, कंपनी को फंड तो हम ही कर रहे हैं न. फिर ये कंपनी क्या कर रही है?
अधिकांश - ब्युराक्रसी तोड़ कर अनार्की फ़ैलाने की कोशिश कर रही है.
समारोह शुरू हो चूका था. हारमोनियम और तबलों की ताल के साथ नील की आवाज़ गूंज रही थी.
नील:
खेतों और खलिहानों में, मेरे मिट्टी के पहलवानों में,
देखो जर्जर अकाल पड़ा वो चमकते पकवानों में.
देखो यहाँ आके दिनकर,
दफना दिया इन्होने जनतंत्र,
फावड़े और हल को तोड़कर,
अनार्की को माने गणतंत्र!
पत्थर के रहते थे जहाँ गूंजते जयकारे,
मंदिर में भी पड़ने लगे अब अफीम के लश्कारे,
डेमोक्रेसी का नाद बजे,
कवि और लेखक कब के हारे!
जिस नारी के हाथ सहते थे चूल्हों का ताप,
मनमोहन को तू भूलकर, सोनिया के शब्दों को नाप.
रामधारी सिंह दिनकर तू भी देख गगन से,
सांप भी आजकल निकलते हैं खदर पहन के,
भ्रष्टाचार की सेल लगी रे,
पाप भी ना धोये जाएँ गंगा नहा के!
करन ही था उस युग का सबसे बड़ा दानी,
आकाश में धुंए का गुबार उठता है,
दूषित कर दिया मेरा पानी.
हवा पर भी टैक्स लगा,
मदारी का बंदर फिर भी ना जगा,
नीलाम हो गए दो गज़ ज़मीन के भी टुकड़े,
बजट से दूर भागता हर अभागा!
पहन लो तुम जितने भी मुकुट, टांग लो हीरे का गहना,
कण - कण में बिखेर दूंगा जब कुदाल चलाता आयूंगा,
मिट्टी से जो उत्पन हुआ उसी में है उसने बह जाना.
कलम से लिखने वालों की तरह है मेरी सोच,
अभी मुझे बहुत है उड़ना,
मेरी उड़ान को मत रोक!
पूरा पंडाल तालियों से गूंज उठा. और इधर पृथ्वी के घर में शिकन की हवाएं मंडरा रहीं थीं.
पृथ्वी - देख क्या रहे हो बे? जगह खाली करवायो, लीस पर थोड़ी ले रखी है उन्होने.
आदिल - मैं, कल नहीं आ सकूँगा. वो मुझे अपने भांजे को लेकर मोसक जाना है.
आज़ाद - सीधे - सीधे मस्जिद नहीं बोल सकता.
पृथ्वी - ठीक है. इसकी जगह मैं चलता हूँ. जीप तैयार रखना.
दोपहर की धूप जीप पर ताज बन कर सजी हुयी थी. जबकि, पृथ्वी, आज़ाद, अधिकांश, विनीत, और शुकला एक किला फ़तेह करने की तैयारी में थे.
मधु - देखिये, हमारा ग्रुप आज की औरत की आवाज़ है. घर पर आटे को गुंथती और परुषों के अत्याचार के नीचे पिस रही, इन औरतों के बारे में तो कोई नहीं सोचता. अब बात हक़ की और अधिकारों पर आ चुकी है. नारी से बंधी ज़ंजीर तोड़ने का वक़्त आ गया है.
पृथ्वी - ज़ंजीर तो रेड लाइट एरिया में बने हुए कोठों वालियों पर भी लगी हुयी है. उन्हें तो आप कभी नहीं खोलती. उनके अधिकारों की बात आते ही मुद्दा बदल जाता है, हक़ तहकाने में बंद कर दिए जाते हैं. उनके लिए लड़कर हाथ गंदे क्यूँ करें. अब उस जगह पर हमने किसानों और सोसाइटी के नीचे दबे हुए गरीबों की आवाज़ को उठाना है. आप कोई और जगह चुनिए. पैसे, हम दे देंगे.
माहोल मुर्दे की भांति शांत हो गया. एक पल के बाद उसी शांति को मधु की कर्कश आवाज़ ने तोड़ा.
मधु - देखिये, हम इस दिन का काफी देर से इंतज़ार कर रहे हैं. चुनाव सिर पर हैं, सड़कों पर काफी रैलियां होंगी, और यही मौका है हमे अपना सन्देश फ़ैलाने का. और, पैसों की आप फिकर मत करें. कोई तो हमे फंड कर ही देगा. आप लोग कोई और जगह क्यूँ नहीं चुन लेते? ऐसे काफी मैदान होंगे जहाँ से मंत्री और उनकी पार्टियाँ आपको देख सकें.
जीप से गाँव पलटे लोगों के चेहरे गुस्से में फुंकारते हुए थे. शायद सूरज भी इस गुस्से के कोप को सह नहीं सका और छिप गया.
पृथ्वी - इस धरने से लोगों को हमारे बारे में पता लगना था. हमारी जंग का हिसा बनते वो. अगर, उस कंपनी को फ़ैलाने के लिए पब्लिक ही नहीं मिलेगी तो क्या अनार्की को पेड़ से तोड़कर यहाँ बाटूँ. बुत बुने फिरते रहते हो तुम सब. १९९१ से ले कर २००६ तक सोमालिया भी सरकारी पंजों से आज़ाद था. और हर आज़ादी की कीमत लगती है. देख क्या रहे हो बे, पता लगायो कि नारी आंदोलन चल किसके पहिये पर रही है.
आज़ाद - कोई बिल्डर है. दुबई से आया है. अपने गाँव के साथ जुड़े हुए कस्बों को हटाना चाहता है. परमिट मिल चुका है उसे.
पृथ्वी की आँखों में खून उतर आया.
पृथ्वी - ये मेरी ज़मीन है, मेरे पुरखों का अंग है. यहाँ सोने की ईमारत बनाने से पहले फाड़ के गाद दूंगा उसको.......आदिल कहाँ है? बुला के ला उसे.
विनीत - शहर, उसके घर फ़ोन किया था, उसके भांजे ने उठाया था. बोल रहा था की, मामू मोस्को गया है. असल में उसका चाचा अपने शहर से चुनाव लड़ रहा है. उसी का प्रचार कर रहा है.
इस से पहले की कोई और कुछ बोल पाता, अँधेरे को चीरती हुयी एक रौशनी वहां आ पहुंची. रौशनी स्कूटर की थी.
पृथ्वी - मोस्को से कब आया तू?
आदिल - वो मैं...वो.
पृथ्वी - प्लेन ने बहरा कर दिया है. कहाँ था?
आदिल - वो मैं वोट डालने गया था.
पृथ्वी - किसको? अपने बाप को...और झूठ बोला ना तो यहीं टांग दूंगा.....आज़ाद, शर्ट उतार इसकी.
अधिकांश - इस पर हम...
आज़ाद - तू चुप रह.
पृथ्वी - आग लगा इसे.
आज़ाद की जेब से माचिस की तिल्ली निकल कर और जल कर आदिल की शर्ट से चिपक गयी.
पृथ्वी - स्कूटर जला दे.
आदिल बस अपने स्कूटर की जलती चिता को देखता रहा.
पृथ्वी - अगली बार तेरा अंतिम संस्कार भी कर देंगे.
पृथ्वी के जाने के बाद, स्कूटर में लगी आग की लपटें और फैलने लगीं.
आज़ाद - विनीत, शुकला पानी डालो स्कूटर पर. खड़ा - खड़ा ही फट ना जाए....... आदिल, देख समझाने की कोशिश कर वो जो बोलता है उसे सुन लिया कर. नहीं तो तुझे काटेगा यहाँ, और टुकड़े हरयाने में मिलेंगे. और तेरे पिता तो कलकत्ते ही रहते हैं ना. दरी बेचते हैं ना वहां पे. तो उनका तो खर्चा और बढ़ेगा. एक समय ख़राब, और बेटे की लाश उठाने के लिए दरी ख़राब. अधिकांश, पानी पिला इसे.
दोपहर की गर्मी में बरगद के पेड़ के नीचे काफी शोर उत्पन हो रहा था.
शुकला - जाल बिछा चुका हूँ.
अधिकांश - दाहिने वाली काट.
विनीत - फँस गया जाल में.
आज़ाद - ले तीन ले गया.
अधिकांश - सल्फेट, जाल खुद के लिए बिछा रहा था!
पृथ्वी - शतरंज चल रही है.
आज़ाद - चेकर्स है पृथ्वी सा. शहर में नया आया है. लड़के सुबह ही ले के आये हैं.
पृथ्वी - कैसे खेलते हैं?
आज़ाद - १२ गीटियाँ दोनों खिलाड़ियों को मिलती हैं. शतरंज के जैसे सफ़ेद और काले खाने बने हुए हैं. सफ़ेद वाले को काली गोलियां खानी हैं और काले को सफ़ेद. १ ही बारी में ३ से लेकर ४ गीटियाँ जीत सकते हैं. बस चाल चलनी पड़ती है.
पृथ्वी के दिमाग में चाल बुनने लगी.
पृथ्वी - आज़ाद! जीप निकाल. विनीत, तू चल मेरे साथ.
जीप के तैयार होते ही पृथ्वी और विनीत उस में सवार हो गए.
पृथ्वी - आज़ाद, तू धरने की तयारी कर. हम आते हैं.
गाँव की कच्ची पगडण्डी से शहर की पक्की सड़कों पर सरपट दौड़ती जीप, विदेश से आये बिल्डर के घर के सामने रुक गयी.
पृथ्वी - जानता है ना यहाँ हम क्यूँ आये हैं. वक़्त आ गया है.
पृथ्वी ने विनीत के हाथ में बंदूक थमा दी. विनीत के कदम दरवाज़े के सामने रुके और उसके हाथ घंटी बजा कर.
'क्या चाहिए?'
विनीत - जी मैं जनराज कॉलेज से आया हूँ. हम लोग गरीबों के उद्वार के लिए धन राशी जमा कर रहे हैं. आप कुछ जोड़ना चाहेंगे.
'जीरो!'
इस से पहले दरवाज़ा बंद होता बंदूक की नाल की बिल्डर की नाक पर मजबूत प्रहार हुआ. और बिल्डर ठिठक गया.
विनीत - हमारी अनार्की बंद कराएगा हरामी...सोने का बाज़ार बनाएगा यहाँ तू.
लगातार हो रहे बंदूक की चोटों से बेहाल बिल्डर का शरीर फर्श पर गिर गया. विनीत रुक गया. बिल्डर रगड़ते हुए अपने विदेशी कालीन के ऊपर पहुँच गया.
विनीत - चल तेरे को शांति तो मिलेगी.
आवाज़ के धमाके हुए और बंदूक से तीन गोलियां निकाल कर बिल्डर के घमंडी शरीर में घुस गयीं. मखमली कालीन पर गुलाल पुत गया.
पृथ्वी - कितनी गोलियां चलायीं?
विनीत - ३!
पृथ्वी - ४ डाल आनी थीं. चल.
धरने का दिन आ गया. पृथ्वी अपने फ़ोन के आस - पास ही चहलकदमी करे जा रहा था. फ़ोन बजा.
आज़ाद - हाँ, भाई सा. यहाँ सब कुछ बढ़िया चल रहा है. वो महिला विभाग भी नहीं आया.
पृथ्वी - ध्यान रहे इस जंग का एलान और संदेश हर घर तक पहुँचाना चाहिए.
आज़ाद - आप फिकर मत कीजिये. संभाला हुआ है मैंने यहाँ सारा कुछ.
रात के अँधेरे को चीरती रोशनियाँ पृथ्वी के घर से आ रहीं थीं. घर नयी नवेली दुल्हन की तरह सजा हुआ था. ये जीत की चमक थी. ये अनार्की का जशन था.
सुबह हुयी पर ये सुबह मनहूसियत की किरण फैला रही थी.
आज़ाद - गज़ब हो गया पृथ्वी भाई सा. दरवाज़ा खोलिए.
शुकला - भाई सा!
पृथ्वी - क्यूँ चिल्ला रहा है?
आज़ाद - कंपनी पर इनकम टैक्स वालों का छापा पड़ गया. काफी काला धन बरामद हुआ. क्लर्कों की तो ज़मानत हो गयी. रिशिध का कुछ पता नहीं चल रहा. कंपनी बंद कर रहे हैं.
पृथ्वी का शरीर जड़ होकर ज़मीन पर आ गिरा. पृथ्वी की स्थति को नील के शब्द ऐसे बयान कर देते.
"ताकत और अहंकार को ना काट सकी दया ,
वो आखिरी बाण दुशासन के प्राण हर ले गया!"
आज़ाद - इन्हें, दिल का दौरा पड़ा है....अधिकांश, जीप निकाल..विनीत पानी ला.
गाँव के खेतों की कच्ची पगडण्डी के किनारे संजय और संजीव मिट्टी खोद रहे थे.
संजय - हमारे गाँव में इतने सारे पेड़ हैं. फिर हम एक और क्यूँ उगा रहे हैं?
संजीव - अभी पेड़ उगा कहाँ है! बीज डाले हैं.
संजय - ये पेड़ राहगीरों को छाया भी देगा.
संजीव - पेड़ तो उगने दे. ऐसे ही बीजों को यहाँ कतार में मिट्टी खोद - खोद डालते जायेंगे और गाँव में और हरियाली ला देंगे.
संजय - ये बीज गुस्सा तो नहीं होंगे.
संजीव - काफी सहा है इन्होने. थोड़ा सा और बर्दाश्त कर लेंगे.
संजय - ये बीज, पेड़ बन कर क्या देंगे?
संजीव - सब कुछ देंगे!
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