बसे पहले तो उत्तराखंड त्रासदी में निस्वार्थ और निरंतर लगे सेना के जवानों, अर्धसैनिक बलो और जुडी एजेंसियों को नमन और धन्यवाद। अब मुद्दे पर आते है।
देश में आम लोगो की एक ख़ास आदत है। किसी आपदा, या राष्ट्रीय सुर्खियों में आयी घटना, अपराध से हर चीज़ अतार्किक रूप से जोड़कर देखी जाने लगती है तब तक जब तक कोई अलग, नयी घटना उन सुर्ख़ियों में ना आ जाये। अक्सर ऐसे मामलो मे पता चलता है की जनता के एक बड़े हिस्से की दूर की नज़र कमज़ोर है। हाँ ये दुर्भाग्यपूर्ण है की एक त्रासदी घटी पर उसके कारको को हटाने पर काम की बजाये दोषारोपण, हर बात मे उस दुखद घटना को घुसा देना कितना सही है?
जैसे एक कॉमिक फैन ने बाइस हज़ार की कॉमिक्स खरीदी तो उसे ऑनलाइन ये नसीहतें/ताने दिये गये की उत्तराखंड त्रासदी मे दान करना चाहिये था। क्या जो कलाकार अपने घरों से इतनी दूर आकर मेहनत कर रहे है उन्हें और उनके परिवारों को जीने के लिए पैसो की ज़रुरत नहीं? उस त्रासदी के अलावा कहीं कश्मीर मे जवानों के काफिले पर आतंकी हमले में 8 जवान मारे गए और कुछ घायल हुए ...इसी तरह और छोटी-बड़ी दुखद घटनायें हुयी .....क्या उन घटनाओ के पीड़ितों को मदद की ज़रुरत नहीं? बिल्कुल है पर आपको तो महीनो एक घटना के तले जो काटने की आदत है।
देश एक मशीन की तरह है जिसकी इकाइयाँ अपने क्षेत्र के काम करने में माहिर है, सब रुक कर एक दिशा मे जायेंगे तो देश रुक जाएगा जिस से और अधिक पीड़ित होंगे। वैसे कहने वाले कह बड़ी आसानी से देते है पर अगर देखा जाए तो उस दिशा में सबसे कम योगदान ऐसे ही लोगो का होता है। प्रकृति पर किसी का बस नहीं चलता पर खुद को व्यतिगत रूप से बदलकर अपने आस-पास के समाज को बदलने की कोशिश कीजिये, सही लोक उम्मीदवार चुनिए। इस से ज्यादा करना चाहते है तो पहले उस स्तर तक पहुँचिये जहाँ से लोगो की मदद कर पायें आप। नीचे से कोसना या बंदर घुड़की देना कुछ न करने के समान है।
- Mohit