...is "Celebrating (un)Common Creativity!" Fan fiction, artworks, extreme genres & smashing the formal "Fourth wall"...Join the revolution!!! - Mohit Trendster
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Wednesday, March 29, 2017

जीत का समझौता (कहानी)


इंटरकॉन्टिनेंटल कप के पहले दौर में हारकर बाहर होने के बाद पापुआ न्यू गिनी क्रिकेट खेमे के एक कोने में 2 खिलाडियों के बीच गंभीर वार्ता चल रही थी। 

"आप जब खुद यह टीम नहीं छोड़ रहे हैं तो मुझसे ऐसा करने के लिए क्यों कह रहे हैं?" परेशान होकर मेज़ के कोने को मसलने की कोशिश करते क्रिकेटर पॉल ने अपने गुरु जैसे सीनियर जिम्मी से पूछा। 

जिम्मी सोच रहा था कि किस तरह ऐसे वाक्य गढ़े जो पॉल की चिंता को कम करें। फिर अपने निर्णय का ध्यान करते हुए वह बोला - "मुझे पापुआ न्यू गिनी में क्रिकेट का भविष्य नहीं दिखता। बाहर निजी क्रिकेट लीग्स में तुम जैसे खिलाडियों को अच्छे अवसर मिलते हैं।"

पॉल - "आप मुझसे बेहतर क्रिकेट खेलते हैं। तो अकेले मेरे जाने का क्या मतलब?"

जिम्मी - "बात को समझो पॉल! तुम अभी से बाहर जाकर संघर्ष करोगे तब जाकर कुछ सालों बाद उसका फल मिलेगा। यहाँ से निकलने में जितनी देर करोगे उतना ही बाहर की लीग्स में सफल होने की सम्भावना कम हो जायेगी। दो साल बाद वर्ल्ड कप क्वालिफाइंग टूर्नामेंट है, जिसमे पापुआ न्यू गिनी के जीतने की और अपना एक दिवसीय दर्जा बचाने की ना के बराबर उम्मीद है। मैंने किशोरावस्था से 2 दशक से अधिक इस देश के क्रिकेट में लगाएं हैं। ना के बराबर ही सही पर दशमलव में कुछ उम्मीद तो है? बस उसी के लिए रुका हूँ...पर तुम्हे यह सलाह नहीं दूंगा।"

पॉल - "आप मेरे आदर्श रहे हैं..."

जिम्मी - "मुझे अपना आदर्श क्रिकेट मैदान के अंदर तक मानो, उसके बाहर अपनी स्थिति अनुसार बातों को समझो और करो। तुम देश के बाहर जाकर किसी विदेशी टीम में नाम कमाओगे तो भी इसी देश के वासी कहलाओगे, इस धरती का नाम रोशन करोगे, क्रिकेट के टैलेंट स्काउट्स तुम्हारे नाम का हवाला देकर यहाँ नए खिलाड़ी खोजने आयेंगे। हारे हुए संघर्ष से बेहतर जीता हुआ समझौता है।"

पॉल के झुके सिर को हामी में हिलता देख जिम्मी ने खुद को दिलासा दिया कि इस डूबते जहाज़ से उसने एक यात्री को बचा ही लिया। 

समाप्त!

#ज़हन

Tuesday, July 19, 2016

स्वर्ण बड़ा या पीतल? (कहानी)

शीतकालीन ओलम्पिक खेलों की स्पीड स्केटिंग प्रतिस्पर्धा में उदयभान भारत के लिए पदक (कांस्य पदक) जीतने वाले पहले व्यक्ति बने। यह पदक इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योकि भारत में शीतकालीन खेलों के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। मौसम के साथ देने पर हिमांचल, कश्मीर जैसे राज्यों में कुछ लोग शौकिया इन खेलों को खेल लेते थे। भारत लौटने पर उदयभान का राजा की तरह स्वागत हुआ। राज्य और केंद्र सरकार की तरफ से उन्हें 35 लाख रुपये का इनाम मिला। साथ ही स्थानीय समितियों द्वारा छोटे-बड़े पुरस्कार मिले। जीत से उत्साहित मीडिया और सरकार का ध्यान इन खेलों की तरफ गया और चुने गए राज्यों में कैंप, इंडोर स्टेडियम आदि की व्यवस्था की गयी। खेल मंत्रालय में शीतकालीन खेलों के लिए अलग समिति बनी। इस मेहनत और प्रोत्साहन का परिणाम अगले शीतकालीन ओलम्पिक खेलों में देखने को मिला जब उदयभान समेत भारत के 11 खिलाडियों ने अपने नाम पदक किये। उदयभान ने अपना प्रदर्शन पहले से बेहतर करते हुए स्वर्ण पदक जीता। 

जब मीडियाकर्मी, उदयभान के घर पहुंचने पर उनका और परिवार का साक्षात्कार लेने आये तो उदयभान के माता-पिता कुछ खुश नहीं दिखे। कारण -

"रे लाला ने इतनी मेहनत की! पहले से जादा लगा रहा...गोल्ड जित्ता, फेर भी पहले से चौथाई पैसा न दिया सरकारों ने। यो के बात हुई? इस सोने से बढ़िया तो वो पीतल वाला मैडल था।"

उदयभान के साथ सभी मीडियाकर्मियों में मुस्कराहट फ़ैल गयी। पहले स्पॉटलाइट में उदयभान पहला और अकेला था...अब उसका पहला होना रिकॉर्ड बुक में रह गया और उसके साथ 10 खिलाडी और खड़े थे। जिस वजह से उसे पहले के कांस्य जीतने पर जितने अवार्ड और पैसे मिले थे, उतने इस बार स्वर्ण जीतने पर नहीं मिले। 

समाप्त!

- मोहित शर्मा ज़हन

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Saturday, July 9, 2016

एकल-युगल-पागल (कहानी) - मोहित शर्मा ज़हन

"जी सर! मैंने चक्कू घोंप दिया ससुरे की टांगों में अब आपका जीतना पक्का।"

टेनिस एकल प्रतिस्पर्धा में स्टीव जो एक जाना-पहचाना नाम था, जिसके नाम कुछ टाइटल थे। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों के दौरान वह सफलता से दूर ही रहा। फिटनेस के हिसाब से उसमे 2-3 सीजन का खेल बचा था और इस बीच वह अधिक से अधिक टाइटल अर्जित करना चाहता था। सबसे पहले वह तुलनात्मक रूप से आसान और नीची रैंक के खिलाड़ियों से भरे टूर्नामेंट चुनता था ताकि उसके जीतने की सम्भावना बढ़े, किस्मत से वह एक नामी टूर्नामेंट के सेमीफाइनल में पहुंचा जहां उसका प्रतिद्वंदी दुनिया का नंबर एक खिलाड़ी था। इस खिलाड़ी से पार पाना स्टीव के बस की बात नहीं थी। स्टीव ने उस खिलाड़ी को घायल करवाने के लिए अपने एक जुनूनी देशवासी को ब्रेनवाश किया कि देश के नाम और सम्मान के लिए उसे वर्ल्ड नंबर वन को खिलाड़ी घायल करना है। पूरी रात पार्टी कर अगले दिन वॉकओवर मिलना सुनिश्चित मान स्टीव कोर्ट पर उतरा जहाँ फिट्टम-फिट दुनिया का नंबर एक खिलाड़ी उसका इंतज़ार कर रहा था। उसके पैरो तले ज़मीन और खोपड़े छज्जे आसमान खिसक गए। काश कल न्यूज़ में कन्फर्म कर लेता तो दारु तो ना पीता, अब तो 6-0, 6-0 पक्का! पता नहीं किस बेचारे के पैरों में चक्कू घोंप दिया गधे ने? 

बगल के कोर्ट में इस प्रतियोगिता का युगल (डबल्स) टेनिस खेल रही एक टीम को वॉकओवर मिला क्योंकि उनकी विरोधी टीम के एक खिलाड़ी पर पिछली रात टांगलेवा हमला हुआ था, यह खिलाड़ी विश्व डबल्स टेनिस में नंबर एक रैंक पर था। 

इस कहानी से शिक्षा मिलती है जुनूनी के साथ-साथ थोड़ी अक्ल वाले बंदे-बंदियों से ऐसे काम करवाने चाहिए।

समाप्त!

Saturday, June 28, 2014

बहरूपिये का बाप बहरूपिया! - मोहित शर्मा (ज़हन)



"बहरूपिये का काम बड़ा मुश्किल होता है भैया! न पैसा बनता है और प्रधान से लेकर ननकऊ लौंडे तक मज़ाक बना के चले जाते है। 

बस यूँ काम आया मेरा हुनर, पिता जी का देहांत हो गया और किसी ने दफ्तर खबर कर दी तो पेंशन रुक गयी। घर में तंगी.... तब डरता-डरता मजबूरी में मैं पिता जी बन कर कसबे गया की आज राजा राम जी या तो तार डालें या मार डालें। प्रधान जी की मदद से सब ठीक-ठाक हो गया और पेंशन वापस चालू हुई। 

एक मलाल रहता था हमेशा की मेरी वजह से माँ को कभी ख़ुशी नहीं मिली, सुख-सुविधाएँ तो दूर की कौड़ी थी। माँ भी अब मरणासन थी, खून की उल्टियाँ करती माँ को मैं सब कुछ गिरवी रख शहर के अस्पताल लाया जहाँ पता चला की बहुत देर हो चुकी है और अब माँ कुछ दिन ही और जी पायेंगी। 'वह' दिन भी आया...उनकी आँखों में दिख रहा था की आज वो दिन है... साथ में उनकी आँखों में मुझे कुछ और भी दिखा, एक निवेदन, माँ-बेटे की उस भाषा में जो कोई तीसरा नहीं समझ सकता। 

इस बार मुझे डर था की कहीं ये निवेदन उनकी आँखों में ही न रह जाये। 

मैं उनके इष्ट देव भोले शंकर का रूप धर उनके सामने आया। माँ के चेहरे पर मुस्कान आ गयी और उन्होंने मुझे नमन किया। आज पहली बार जैसे इस बहरूपिये की कला को माँ का आशीर्वाद मिला हो। फिर तो जैसे मुझमे साक्षात कोई दिव्य शक्ति आ गयी, मैं एक के बाद एक रूप बदलने लगा, कर्मचारियों और मरीजों की भीड़ गयी कमरे के बाहर। कभी राम जी, तो कभी गाँव के प्रधान जी, यूँ डाकिया तो झट से थानेदार…जाने कितने रूप बदले मैंने। मुझे उनका निवेदन याद था बस मैं टाल रहा था क्योकि मुझे डर था की वह बात पूरी होते ही शायद आज का यह बहरूपिये का खेल ख़त्म हो जाये। 

माँ बिना शिकायत इत्मीनान से मेरे सभी रूप देखती रहीं, जब मेरा हर स्वांग ख़त्म हो गया तो भरे मन से मैंने अपना आखरी स्वांग धरा। मैंने अपने ही पिता जी का रूप धरा और किसी तरह अपना रुदन दबाकर कमरे में घुसा। उनके चेहरे पर तेज आ गया और वो अपनी बची-खुची शक्ति जुटाकर मेरे पैरों  में पड़ गयी। मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं छोटे बच्चे की तरह विलाप करने लगा, माँ से लिपटकर रोने लगा। जब पकड़ ढीली हुयी तो लगा की उनका शरीर शिथिल पद चुका है और उनके चेहरे पर शान्ति है। माँ को भी पता था की मुझसे उनकी प्रार्थना समझने में कोई भूल नहीं हुयी है। 

समाप्त! 

- मोहित शर्मा (ज़हन)

Notes

*) - Won 'Manthan Competition' jointly organized by Kalamputra Magazine (Hapur), Amar Bharti Paper and Bhavdiye Prabhat - Meerut, U.P. (pics update soon).

*) - Prince Ayush working on a short video on this concept.